रांची/लातेहार। झारखंड राज्य गठन के 25 वर्ष पूरे हो गए हैं, लेकिन इसके पीछे की लंबी लड़ाई, संघर्ष, कुर्बानियां और आंदोलन की तपिश अभी भी लोगों की यादों में ताजा है। झारखंड राज्य के गठन की मांग को लेकर चले आंदोलन में अनगिनत आदिवासी और स्थानीय नेताओं ने जेल-हाजत झेली, लाठियां खाईं और अपने प्रिय नेता ढिशुम गुरु शिबू सोरेन के नेतृत्व में संघर्ष को अंजाम तक पहुंचाया। इस आंदोलन में लातेहार जिले के योगदान को हमेशा अग्रणी माना जाता है—विशेषकर चंदवा, बालूमाथ और महुआडांड प्रखंडों के लोगों ने सक्रिय भूमिका निभाई।
झारखंड आंदोलन की बात हो और चंदवा प्रखंड के कुसुम टोला का नाम न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता। यही वह जगह है जहां 1985 के दशक में आंदोलन की चिंगारी सुलगाई गई थी, जिसका नेतृत्व महेंद्र उरांव ने किया। उनके नेतृत्व और प्रेरणा से धनेश्वर उरांव, मनकु, महेश्वर, प्रमोद उरांव, चरकु मुंडा, करमा मुंडा, रामदेव गंझु, सतेंद्र सिंह, अनिल मिंज, जुगवा उरांव, चंद्रदेव उरांव, वीरेंद्र और रमेश उरांव जैसे अनेक स्थानीय कार्यकर्ता एकजुट हुए। इन लोगों ने न सिर्फ आंदोलन में कंधे से कंधा मिलाया बल्कि लंबे समय तक संगठित होकर संघर्ष को आधार दिया।
बालूमाथ से बुद्धदेव उरांव, महावीर उरांव व रामधनी उरांव, वहीं लातेहार से रामदेव उरांव और विश्वनाथ उरांव भी आंदोलन के शुरुआती दौर से सक्रिय रहे। महुआडांड क्षेत्र से अनिल और मनोहर, जबकि पलामू से रामदयाल उरांव एवं बालकिशन उरांव जैसे नेताओं ने भी निर्णायक भूमिका निभाई। इन सभी ने जेल यात्राएं कीं, आंदोलनकारियों की सुरक्षा की और जनसमर्थन जुटाया। उस समय झारखंड स्टूडेंट यूनियन (JSU) और उसकी इकाई आजसू (AJSU) भी आंदोलन की रीढ़ मानी जाती थी। छात्र संगठनों ने गांव-गांव जाकर राज्य गठन की मांग को जनांदोलन में बदल दिया। इस संघर्ष की ऊर्जा, आदिवासी अस्मिता और संसाधनों पर अधिकार की मांग ने ही देश को एक नया राज्य दिलाया—झारखंड।
आज, 25 साल बाद भी, आन्दोलन से जुड़े लोग मानते हैं कि झारखंड अभी भी आंदोलन के मूल उद्देश्यों से दूर है। कुसुम टोला निवासी और आदिवासी नेता धनेश्वर उरांव कहते हैं,
“हमारी लड़ाई आज भी खत्म नहीं हुई है। हम अब भी जल, जंगल और जमीन की सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जंगलों को लूटने में कॉरपोरेट घराने हावी होते जा रहे हैं। यह वही लड़ाई है जो हमने 80 के दशक में शुरू की थी, बस चेहरे बदल गए हैं।”
धनेश्वर उरांव का यह बयान स्पष्ट करता है कि झारखंड आंदोलन सिर्फ राज्य बनाने की लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह भूमि, पहचान और अधिकार की लड़ाई थी—जो अब भी जारी है। आज जब झारखंड 25वें स्थापना दिवस का जश्न मना रहा है, तब लातेहार की धरती, खासकर कुसुम टोला, उन गुमनाम लेकिन ऐतिहासिक योद्धाओं की याद दिलाती है, जिनके हौसले और संघर्ष के बिना यह राज्य शायद अस्तित्व में ही न आता।

