अयोध्या, 13 फरवरी (लाइव 7) श्री जन्मभूमि पर विराजमान लला के मुख्य पुजारी रहे स्वर्गीय आचार्य सत्येन्द्र दास ने लला के टेंट से लेकर मंदिर में विराजमान होने तक की लगातार सेवा की।
आचार्य सत्येन्द्र दास संतकबीरनगर जिले के एक ब्राह्मण परिवार से अयोध्या आये थे और उस समय अभि दास के शिष्य बने थे। अभि दास ने ही 1949 में मंदिर में लला की मूर्ति स्थापित की थी। श्री दास अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वस्त होने से लेकर भव्य मंदिर के निर्माण तक मुख्य पुजारी बने रहे। वह 1993 से लला की सेवा में लगे हुए थे। उन्होंने टेंट से लेकर भव्य मंदिर में विराजमान होने तक लला की सेवा की थी। 1992 में जब उन्हें लला का पुजारी बनाया गया तो उस समय उन्हें मानदेय के रूप में सौ रुपया मिलता था। वह पिछले 34 साल से लला की सेवा में लगे थे।
आचार्य सत्येन्द्र दास अध्यापक की नौकरी छोडक़र लला के पुजारी बने थे। उन्होंने 1975 में संस्कृत में आचार्य की डिग्री ली और फिर अयोध्या के संस्कृत महाविद्यालय में सहायक अध्यापक के तौर पर नौकरी शुरू की। इसके बाद मार्च 1992 में श्री जन्मभूमि के रिसीवर की तरफ से उन्हें पुजारी नियुक्त किया गया। हालांकि उन्होंने लला के भव्य मंदिर में विराजमान होने के बाद कार्यमुक्त करने का निवेदन भी किया गया लेकिन श्री जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की तरफ से इन्कार कर दिया गया और कहा गया कि वह मुख्य पुजारी बने रहेंगे।
ट्रस्ट की तरफ से यह भी कहा गया कि मंदिर में लला की पूजा कर सकते हैं इसके लिए उन्हें किसी संत की बाध्यता नहीं रहेगी और कहा गया कि जब तक यह हैं तब तक उन्हें ट्रस्ट की तरफ से वेतन दिया जायेगा। आचार्य सत्येन्द्र दास निर्भीक विचारधारा के थे। उनके अंदर सच्चाई भरा हुआ था। हाल में श्री जन्मभूमि पर मंदिर के निर्माण में गर्भगृह में काफी बारिश होने पर पानी टपकने की खबर श्री दास ने उठायी थी, तब भी ट्रस्ट ने उनके ईमानदारी और व्यवहार को देखते हुए उनकी पीठ थपथपायी थी, लेकिन बाद में ट्रस्ट के अधिकारियों ने साफ-सफाई देकर उस मामले को शांत कर दिया था। श्री जन्मभूमि पर जब लला टेंट में थे तब मण्डलायुक्त फैजाबाद के रिसीवर से भी लला के पूजा-पाठ के लिये लाइव 7लाप हो जाता था। अदालत के आदेश से लला का पूजा-पाठ रिसीवर के माध्यम से चल रहा था। लला को टेंट में देखकर अक्सर सत्येन्द्र दास की आंखों में आंसू आ जाते थे। करीब चार साल तक अस्थायी मंदिर में विराजे लला की सेवा करते रहे। लला की पूजा के लिये उनका चयन बाबरी विध्वंस के नौ माह पहले हुआ था, लेकिन लला के प्रति उनके समर्पण व सेवाभाव को देखते हुए उनके स्थान पर अन्य किसी पुजारी का चयन नहीं हुआ।
सत्येन्द्र दास ने लला को टेंट में सर्दी, गर्मी और बरसात की मार झेलते हुए देखा है। यह दृश्य देखकर वह रोते थे। एक वह भी दिन थे जब लला को साल भर में केवल एक सेट नवीन वस्त्र मिलते थे। अनुष्ठान, पूजन आदि के लिये श्री जन्मभूमि के रिसीवर/मण्डलायुक्त से अनुमति लेनी पड़ती थी।
आचार्य सत्येन्द्र दास ने कुछ दिन पहले कहा था “ मैंने लला की सेवा में करीब तीन दशक बिता दिये हैं और आगे जब भी मौका मिलेगा, बाकी जिन्दगी उन्हीं की सेवा में बिताना चाहूंगा। एक मार्च 1992 को लला के मुख्य पुजारी के रूप में मुझे नियुक्ति मिली थी।” आचार्य सत्येन्द्र दास के साथ सहायक पुजारी के रूप में कार्य करने वाले चन्द्र त्रिपाठी बताते हैं कि जब ढांचा विध्वंस हुआ तो आचार्य सत्येन्द्र दास लला के विग्रह को सुरक्षित करने में लगे थे। सुबह के 11 बज रहे थे। मंच लगा हुआ था। नेताओं ने कहा पुजारी जी लला को भोग लगा दें और पर्दा बंद कर दें। तब मुख्य पुजारी ने भोग लगाकर पर्दा बंद कर दिया। एक दिन पहले ही कारसेवकों से कहा गया था कि आप लोग सरयू जल लेकर आयें। वहां एक चबूतरा बनाया गया था। ऐलान किया गया कि सभी लोग चबूतरे पर पानी छोड़ें और धोयें। लेकिन जो नवयुवक थे उन्होंने कहा कि यहां हम पानी से धोने नहीं आये हैं। उसके बाद नारे लगने लगे। सारे नवयुवक उत्साहित थे। सभी लोग बैरीकेडिंग तोडक़र विवादित ढांचे पर पहुंच गये और तोडऩा शुरू कर दिया।
इस बीच मुख्य पुजारी सत्येन्द्र दास ने लला समेत चारों भाईयों के विग्रह को उठाकर अलग लेकर चले गये और लला का कोई नुकसान नहीं होने दिया। 1992 को लला के अशोक सिंहल की सहमति के बाद मुख्य पुजारी नियुक्त किये गये थे तो उन्हे सौ रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता था। लला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद उनका वेतन बढ़ाकर अड़तिस हजार पांच सौ रुपये हो गया था। श्री जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने लला के प्रति उनकी निष्ठा को देखते हुए उन्हें आजीवन वेतन देने का ऐलान भी कर रखा था।
आचार्य सत्येन्द्र दास से पहले लला के मुख्य पुजारी लालदास थे। उस समय रिसीवर की जिम्मेदारी रिटायर्ड जज पर हुआ करती थी। जे.पी. सिंह बतौर रिसीवर नियुक्त थे। फरवरी १९९२ में उनकी मृत्यु हो गयी तो जन्मभूमि की व्यवस्था का जिम्मा जिला प्रशासन को दिया गया। तब पुजारी लालदास को हटाने की बात हुई। उस समय तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी के सांसद, विहिप के नेताओं और कई संतों के सम्पर्क में आने के बाद सबने पुजारी सत्येन्द्र दास के नाम का फैसला लिया। 1992 में नियुक्ति हो गयी, उन्हें अधिकार दिया गया कि वे अपने साथ चार सहायक पुजारी भी रख सकते हैं। ऐसे में मंदिर में बतौर पुजारी सौ रुपये वेतन मिलता था। तीस जून 2007 को अध्यापक के पद से रिटायर हो गये तो 13 हजार रुपये वेतन मिलने लगा। लला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद उनका वेतन बढ़ाकर 38 हजार 500 रुपये हो गया।
लला के मुख्य पुजारी सत्येन्द्र दास के निधन से जिला संत कबीरनगर के पैतृक गांव खर्चा के लोग गमगीन हो गये। खबर सुनने के बाद पैतृक गांव के लोग अयोध्या के लिये रवाना हो गये और उनके दर्शन करने लगे। श्री दास के पिता दुलारे एक किसान थे, माता गृहणी थीं। वह अपने पैतृक स्थान खर्चा में शादी-विवाह के मौके पर आया-जाया करते थे।
पारिवारिक सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार पिछले साल एक तेरहवीं में शामिल होने आये थे। ब्रह्मचारी होने के कारण अपने भतीजों के साथ जीवन की खुशियां बांटते रहे। उनके भतीजे जन्मभूमि के सहायक पुजारी दास हैं। इन्हीं को वो अपना उत्तराधिकारी बनाया है। राधेश्याम पाण्डेय का कहना है कि हमारी आखिरी मुलाकात 2023 में उनके घर अयोध्या में वशिष्ठ भवन में हुई थी। अब वह हमारे बीच नहीं हैं, बेहद कष्ट की बात है। जब भी हम उनसे मिलते थे तो बड़े प्यार से मिलते थे। वे बहुत असाधारण व्यक्ति थे।
सं
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लला की सेवा में जीवन समर्पित कर दिया था सत्येन्द्र दास ने

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