अर्थपूर्ण फिल्में बनाकर सिने दर्शकों के दिलों में अपनी खास पहचान बनाई वी.शांता  ने

Live 7 Desk

..जन्मदिवस 18 नवंबर के अवसर पर..

मुंबई, 18 नवंबर (लाइव 7) सिनेमा जगत के पितामह वी.शांता  को एक ऐसे फिल्मकार के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि पर अर्थपूर्ण फिल्में बनाकर लगभग छह दशकों तक सिने दर्शकों के दिलों में अपनी खास पहचान बनाई।

वी.शांता  (राजा  वानकुदरे शांता ) का जन्म 18 नवंबर, 1901 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ था। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी।उनका रुझान बचपन से हीं फिल्मों की ओर था और वह फिल्मकार बनना चाहते थें। करियर के शुरुआती दौर में गंधर्व नाटक मंडली में उन्होंने पर्दा उठाने का भी काम किया। वर्ष 1920 में वह बाबू राव पेंटर की महाराष्ट्र फिल्म कंपनी से जुड़ गए और उनसे फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखने लगे। वी शांता  ने अपने करियर की शुरुआत वर्ष 1921 में प्रदर्शित मूक फिल्म ‘सुरेख हरण’ से की। इस फिल्म में उन्हें बतौर अभिनेता काम करने का अवसर मिला।

इस बीच शांता  की मुलाकात भी.जी. दामले, एस कुलकर्णी, एस. फतेलाल और के.आर. धाइबर से हुई, जिनकी सहायता से उन्होंने वर्ष 1929 में प्रभात कपंनी फिल्म्स की स्थापना की। प्रभात कंपनी के बैनर तले शांत  को गोपाल कृष्णा, खूनी खंजर, रानी साहिबा और उदयकाल जैसी फिल्में निर्देशित करने का मौका मिला। वर्ष 1932 में प्रदर्शित फिल्म ‘अयोध्यचे राजा’ उनके सिने कैरियर की पहली बोलती फिल्म थी। वर्ष 1933 में प्रदर्शित फिल्म ‘सैरंधी’ को शांतारम रंगीन बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जर्मनी का दौरा किया और वहां के लैब अगफा लैबोरेटरी में फिल्म को प्रोसेसिंग के लिए भेजा, लेकिन तकनीकी कारण से फिल्म पूर्णत .रंगीन नहीं बन सकी।

वी.शांता  ने कुछ दिनों जर्मनी में रहकर फिल्म निर्माण की तकनीक भी सीखी। वर्ष 1937 में प्रदर्शित फिल्म ‘संत तुका ’ शांता  निर्देशित अहम फिल्मों में शुमार की जाती है। फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट होने के साथ साथ पहली भारतीय फिल्म बनी, जिसे मशहूर वेनिस फिल्म फेस्टिबल में सम्मानित किया गया। वर्ष 1936 में ही शांता  के करियर की एक और सुपरहिट फिल्म ‘अमर ज्योति’ प्रदर्शित हुई। यह फिल्म उनकी उन गिनी चुनी चंद फिल्मों में शामिल है जिनमें एक्शन और स्टंट का उपयोग किया गया था।इस फिल्म के माध्यम से शांता  ने नारी शक्ति को रुपहले पर्दे पर पेश किया था। वर्ष 1942 में उन्होंने प्रभात कंपनी को अलविदा कह दिया और मुंबई में राजकमल फिल्म्स और स्टूडियो की स्थापना की। इसके बैनर तले उन्होंने वर्ष 1943 में फिल्म ‘शकुंतला’ का निर्माण किया। फिल्म ने एक सिनेमा घर में लगातार 104 हफ्ते चलकर टिकट खिड़की पर सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए।

वर्ष 1946 में प्रदर्शित फिल्म ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ वी.शातारांम निर्देशित महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है जिसमें मुख्य किरदार की भूमिका उन्होंने स्वयं निभाई थी। फिल्म की कहानी डा.द्वारकानाथ कोटनीस की जिंदगी से जुड़ी एक सत्य घटना पर आधारित होती है जिसमें द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद डा.कोटनीस कैदियों के इलाज के लिए चीन जाते हैं जहां जापानी सरकार द्वारा कैद कर लिए जाते हैं। हालांकि बाद में वहीं उनकी मौत हो जाती है।

वर्ष 1955 में प्रदर्शित फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे’ वी.शांता  द्वारा निर्देशित पहली रंगीन फिल्म थी। नृत्य पर आधारित इस फिल्म में गोपी कृष्ण और संध्या की मुख्य भूमिका थी। फिल्म में अपने बेहतरीन निर्देशन के लिए उनको पहली बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म ‘दो आंखे बारह हाथ’ वी.शांता  की सर्वाधिक सुपरहिट फिल्म साबित हुई। दो आंखे बारह हाथ उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाती है। साथ ही इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। वहीं, फिल्म बर्लिन फिल्म फेस्टिबल में सिल्वर बीयर अवार्ड और सैमुयल गोल्डेन अवार्ड में सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म के पुरस्कार से सम्मानित भी की गई।

वर्ष1959 में प्रदर्शित फिल्म ‘नवरंग’ वी.शांता  के करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में शामिल है। फिल्म में होली का गीत ‘अरे जा रे हट नटखट’ फिल्माया गया। सी  चंद्र के संगीत निर्देशन और   भोंसले द्वारा गाए गए भरत व्यास रचित इस सुंदर गीत को सिने  ी आज भी नहीं भूल पाए हैं। गीत से जुड़ा रोचक तथ्य है कि इसमें अभिनेत्री संध्या को गाने के दौरान लड़के और लड़की के भेष में एक साथ दिखाया गया था। वर्ष 1964 में अपनी पुत्री राजश्री को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए उन्होंने ‘गीत गाया पत्थरो नें’ का निर्माण किया। इसी फिल्म से अभिनेता जीतेन्द्र ने भी अपने करियर की शुरुआत की थी।अपनी पहली ही फिल्म में जीतेन्द्र का जलावा दर्शकों के सिर चढ़कर बोला और फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई। सत्तर के दशक में उन्होंने फिल्मों में काम करना काफी हद तक कम कर दिया। वर्ष 1986 में प्रदर्शित फिल्म ‘झांझर’ उनके द्वारा निर्देशित अंतिम फिल्म साबित हुई। फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह से नकार दी गई जिससे शांता  को गहरा सदमा पहुंचा और उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री से किनारा कर लिया।

वी.शांता  को अपने कैरियर में मान-सम्मान भी बहुत मिला। वर्ष 1985 फिल्म निर्माण में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए वह फिल्म इंडस्ट्री के सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किए गए। इसके अलावा वर्ष 1992 में उन्हें पद्मविभूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उन्होंने अपने छह दशक लंबे सिने करियर में लगभग 50 फिल्मों को निर्देशित किया। उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ हैं चंद्रसेना, माया मछिन्द्रा, अमृत मंथन, धर्मात्मा, दुनिया ना माने, पड़ोसी, अपना देश, दहेज, परछाइयां, तीन बत्ती चार रास्ता, सेहरा, बूंद जो बन गए मोती, पिंजरा आदि अपनी फिल्मों के जरिए दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाले महान फिल्मकार वी.शांता  30 अक्टूबर 1990 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

 

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