गीतों के राजकुमार थे गोपाल सिंह नेपाली

Live 7 Desk

..जन्मदिवस 11 अगस्त के अवसर पर..
मुंबई, 11 अगस्त (लाइव 7) कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे ‘गीतों के राजकुमार’ गोपाल सिंह नेपाली लहरों की धारा के विपरीत चलकर हिन्दी साहित्य. पत्रकारिता और फिल्म उद्योग में ऊंचा स्थान हासिल करने वाले छायावादोत्तर काल के विशिष्ट कवि और गीतकार थे।
बिहार के पश्चिम चम्पारण जिले के बेतिया में 11 अगस्त, 191। को जन्मे गोपाल सिंह नेपाली की काव्य प्रतिभा बचपन में ही दिखाई देने लगी थी।एक बार एक दुकानदार ने बच्चा समझकर उन्हें पुराना कार्बन दे दिया, जिस पर उन्होंने वह कार्बन लौटाते हुए दुकानदार से कहा, इसके लिए माफ कीजिएगा गोपाल पर, सड़यिल दिया है आपने कार्बन निकालकर। उनकी इस कविता को सुनकर दुकानदार काफी शर्मिंदा हुआ और उसने उन्हें नया कार्बन निकालकर दे दिया। नेपाली ने जब होश संभाला तब चंपारण में महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन चरम पर था। उन दिनों पंडित कमलनाथ तिवारी, पंडित केदारमणि शुक्ल और पंडित   रिषिदेव तिवारी के नेतृत्व में भी इस आंदोलन के समानान्तर एक आंदोलन चल रहा था।
गोपाल सिंह नेपाली इस दूसरी धारा के ज्यादा करीब थे। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पारंगत नेपाली की पहली कविता ‘भारत गगन के जगमग सितारे’ 1930 में  वृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। पत्रकार के रूप मेंउन्होंने कम से कम चार हिन्दी पत्रिकाओं-‘रतलाम टाइम्स’, ‘चित्रपट’, ‘सुधा’ और ‘योगी’ का सम्पादन किया। युवावस्था में नेपाली के गीतों की लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें आदर के साथ कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। उस दौरान एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि  धारी सिंह ‘दिनकर’ उनके एक गीत को सुनकर गद्गद हो गए। वह गीत था, ‘सुनहरी सुबह नेपाल की, ढलती शाम बंगाल की कर दे फीका रंग चुनरी का, दोपहरी नैनीताल की क्या दरस परस की बात यहां, जहां पत्थर में भगवान है यह मेरा हिन्दुस्तान है, यह मेरा हिन्दुस्तान है।’
गोपाल सिंह नेपाली के गीतों की उस दौर में धूम मची हुई थी लेकिन उनकी माली हालत खराब थी। वह चाहते तो नेपाल में उनके लिए सम्मानजनक व्यवस्था हो सकती थी क्योंकि उनकी पत्नी नेपाल के राजपुरोहित के परिवार से ताल्लुक रखती थीं, लेकिन उन्होंने बेतिया में ही रहने का निश्चय किया।संयोग से गोपाल सिंह नेपाली को आर्थिक संकट से निकलने का एक रास्ता मिल गया। वर्ष 1944 में वह अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिए मुम्बई आए थे। उस कवि सम्मेलन में फिल्म निर्माता शशधर मुखर्जी भी मौजूद थे, जो उनकी कविता सुनकर बेहद प्रभावित हुए। उसी दौरान उनकी ख्याति से प्रभावित होकर फिल्मिस्तान के मालिक सेठ तुला  जालान ने उन्हें दो सौ रुपए प्रतिमाह पर गीतकार के रूप में चार साल के लिए अनुबंधित कर लिया।
गोपाल सिंह नेपाली ने सबसे पहले 1944 में फिल्मिस्तान के बैनर तले बनी ऐतिहासिक फिल्म ‘मजदूर’ के लिए गीत लिखे। इस फिल्म के गीत इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से नेपाली को 1945 का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार मिला। फिल्मी गीतकार के तौर पर अपनी कामयाबी से उत्साहित होकर नेपाली फिल्म इंडस्ट्री में ही जम गए और लगभग दो दशक 1944 से 1962 तक गीत लेखन करते रहे।इस दौरान उन्होंने 60 से अधिक फिल्मों के लिए लगभग 400 से अधिक गीत लिखे, जिनमें कई गीत बेहद मकबूल हुए। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से अधिकतर गीतों की धुनें भी खुद उन्होंने बनाईं। फिल्म इंडस्ट्री में गोपाल सिंह नेपाली की भूमिका गीतकार तक ही सीमित नहीं रही। उन्होंने गीतकार के रूप में स्थापित होने के बाद फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रखा और हिमालय फिल्म्स और नेपाली पिक्चर्स फिल्म कंपनी की स्थापना करके उसके बैनर तले तीन फिल्मों- ‘नजराना’(1949), ‘सनसनी’ (1951) और ‘खूशबू’ (1955) का निर्माण किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म कामयाब नहीं हो पाई और उन्हें आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा।
इसके बाद उन्होंने फिल्म निर्माण से तौबा कर ली। गोपाल सिंह नेपाली को जीते जी वह सम्मान नहीं मिल सका, जिसके वह हकदार थे। अपनी इस भावना को उन्होंने कविता में इस तरह उतारा था, ‘अफसोस नहीं हमको जीवन में कुछ कर न सके, झोलियां किसी की भर न सके, संताप किसी का हर न सके अपने प्रति सच्चा रहने का जीवन भर हमने यत्न किया देखा देखी हम जी न सके, देखा देखी हम मर न सके।’ 17 अपे्रल 1963 को अपने जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ करके लौटते समय बिहार के भागलपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर दो पर गोपाल सिंह नेपाली का अचानक निधन हो गया।
 
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