..पुण्यतिथि 19 अगस्त के अवसर पर ..
मुंबई, 19 अगस्त (लाइव 7) भारतीय सिनेमा जगत में जां निसार अख्तर को एक ऐसे गीतकार-शायर के रूप याद किया जाता है, जिन्होंने अपने गीतों को आम जिंदगी से जोड़कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया।
जां निसार अख्तर का जन्म वर्ष 1914 में मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था। उनके पिता मुस्तार खैराबादी भी एक मशहूर शायर थे। बचपन से ही शायरी से उनका गहरा रिश्ता था।उनके घर शेरो.शायरी की महफिलें सजा करती थी जिन्हें वह बड़े प्यार से सुना करते थे।अख्तर ने जिंदगी के उतार.चढ़ाव को बहुत करीब से देखा था इसलिये उनकी शायरी में जिंदगी के फसाने को बडी शिद्दत से महसूस किया जा सकता है ।उनकी गजल का एक शेर आज भी लोगों के जेहन में गूंजा करता है।
..इंकलाबो की घडी है …
हर नही हां से बड़ी है ..
जां निसार अख्तर के गीतों की यह खूबी रही है कि वह अपनी बात बड़ी आसानी से दूसरो को समझा सकते थे । महज 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी पहली गजल लिखी ।अख्तर की स्नाकोत्तर की शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से हुई। उनका निकाह 1943 में उस जमाने के एक और मशहूर शायर मजाज लखनवी की बहन साफिया सिराज उल हक से हुआ। वर्ष 1945 अख्तर के लिये खुशियों की सौगात लेकर आया। इस वर्ष उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी ।जां निसार अख्तर ने अपने पुत्र का नाम रखा ..जादू.. । यह नाम अख्तर के ही एक शेर की एक पंक्ति ..लंबा लंबा किसी जादू का फसाना होगा.. से लिया गया है और बाद मे जादू ..जावेद अख्तर..के नाम से फिल्म इंडस्ट्री में विख्यात हुये ।
वर्ष 1947 मे विभाजन के बाद देश भर मे हो रहे सांप्रदायिक दंगो से तंग आकर जां निसार अख्तर ग्वालियर छोड़कर भोपाल आ गये।भोपाल मे वह मशहूर हामिदा कॉलेज मे उर्दू के प्रोफेसर नियुक्त किये गये लेकिन कुछ दिनों के बाद उनका मन वहां नही लगा और वह अपने सपनों को नया रूप देने के लिये वर्ष 1949 में मुंबई आ गये।मुंबई पहुंचने पर उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पडा । मुंबई में कुछ दिनों तक वह मशहूर उपन्यासकार इस्मत चुगतई के यहां रहने लगे । सबसे पहले फिल्म शिकायत के लिये उन्होंने गीत लिखे लेकिन इस फिल्म की असफलता के बाद उनका अपना फिल्मी कैरियर डूबता नजर आया ।लेकिन उन्होने हिम्मत नहीं हारी और अपना संघर्ष जारी रखा ।धीरे धीरे मुंबई में उनकी पहचान बनती गयी लेकिन वर्ष 1952 में उन्हें गहरा सदमा पहुंचा जब उनकी बेगम का इंतकाल हो गया।
लगभग चार वर्ष तक मायानगरी मुंबई में संघर्ष करने के बाद वर्ष 1953 मे प्रदर्शित फिल्म नगमा में पार्श्वगायिका शमशाद बेगम की आवाज में बड़ी मुश्किल से दिल की बेकरारी मे करार आया की सफलता से जां निसार अख्तर कुछ हद तक बतौर गीतकार फिल्म इंडस्ट्री मे अपनी पहचान बनाने मे सफल हो गये। फिल्म नगमा की सफलता के बाद जां निसार अख्तर को कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गये ।इस बीच उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और कई छोटे बजट की फिल्में भी की जिनसे उन्हें कुछ खास फायदा नही हुआ। अचानक हीं उनकी मुलाकात संगीतकार ओ.पी नैयर से हुयी जिनके संगीत निर्देशन में उन्होंने फिल्म बाप रे बाप के लिये अब ये बता जायें कहां और दीवाना दिल अब मुझे राह दिखाये गीत लिखा। भोंसले की आवाज में यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ।
इसके बाद ओ .पी .नैयर उनके पसंदीदा संगीतकार बन गये। वर्ष 1956 में ओ.पी.नैयर के संगीत से सजी गुरूदत्त की फिल्म सीआईडी में उनके रचित गीत ..ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां जरा हट के जरा बच के ये है मुंबई मेरी जान की सफलता के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नही देखा। सीआईडी का यह गीत इस कदर लोकप्रिय हुआ कि इसने पूरे भारत वर्ष में धूम मचा दी। इसके बाद उन्होंने सफलता की नयी बुलंदियों को छुआ और एक से बढ़कर एक गीत लिखे।
साठ के दशक में अख्तर ने संगीतकार खय्याम के संगीत निर्देशन में कई गैर फिल्मी गीत भी लिखे। उनके इन गीतो को बाद में पार्श्वगायक मुकेश ने अपना स्वर दिया।जां निसार अख्तर के गैर फिल्मी गीतो मे कुछ हैं अशयार मेरा यूं तो जमाने के लिये है,हर एक हुस्न तेरा,हमसे भागा ना करो,राही है दी तलब, थर थरा उठी है ,जरा सी बात पर हर जैसे न भूलने वाले गीत शामिल है। वर्ष 1976 में साहित्य के जगत में जां निसार अख्तर के बहुमूल्य योगदान को देखते हुये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार उनके संग्रह ..खाके दिल .. के लिये दिया गया। जां निसार अख्तर ने चार दशक लंबे सिने करियर में 80 फिल्मों के लिये गीत लिखे। अपने गीतों से श्रोताओं के दिल में खास पहचान बनाने वाले महान शायर और गीतकार जां निसार अख्तर 19 अगस्त 1976 को इस दुनिया को अलविदा कह गये।
लाइव 7
अपने गीतों को आम जिंदगी से जोड़कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया जां निसार अख्तर ने
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