आधुनिक शैक्षिक संस्कृति एवं चिंतनशीलता
वैज्ञानिकता के पोषण की आड़ में चिंतन एवं सृजन करने की शक्ति को बहुत हद तक कुंद करने का एक सिलसिला चल पड़ा है
- Sponsored -
लेखक :
डाॅ. राज कुमार शर्मा
डीन स्टूडेंट वेलफेयर
राँची विश्वविद्यालय, राँची।

आधुनिक शिक्षा पद्धति आज वैश्विक स्तर पर लगभग पूर्ण रूप से तकनीक केंद्रित हो चुकी है जहाँ अत्याधुनिक उपकरणों की सहायता से ही पठन-पाठन का कार्य चलाना निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा रहा है। किसी भी शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता का आकलन उसके पास उपलब्ध तकनीकी संसाधनों के आाधार पर किया जाता है। विज्ञान तो विज्ञान, कला एवं अन्य विधाओं की पढ़ाई भी दिनांेंदिन इन्हीं तकनीकी उत्पादों एवं युक्तियों जैसे कम्प्यूटर, पावर प्वांइट, मोबाइल एप्प, इत्यादि के सहारे किया जाना श्रेयस्कर समझा जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में तमाम सारे वैज्ञानिक उपकरणों एवं युक्तियों का अत्याधिक इस्तेमाल एवं इन पर निर्भरता वर्Ÿामान शैक्षिक संस्कृृति की पहचान बन गई है। इसमें कोई शक नहीं है कि इन युक्तियों के उपयोग से शिक्षण की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण आयाम जुड़ा है जो कि काफी हद तक प्रभावकारी भी सिद्ध हुआ है, परंतु इस पर अत्याधिक निर्भरता के गंभीर दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं।
आज की युवा पीढ़ी इन वैज्ञानिक उत्पादों के अत्याधिक इस्तेमाल का ऐसा शिकार हो रहा है कि यह इनके अन्दर की सृृजनशीलता एवं मौलिक चिंतन करने की क्षमता को नष्ट कर दिया है। आज पूरे शैक्षिक वातावरण में काॅपी एवं पेस्ट का बोलबाला है। यहाँ तक की छुट्टी का आवेदन भी इसी काॅपी पेस्ट के माध्यम से तैयार किया जा रहा है। विद्यार्थियों में गहन अध्ययन की आदत लगभग समाप्ति की ओर है। स्वयं से किसी विषय वस्तु पर आलेख तैयार करने की प्रवृति भी हासिए पर चला जा रहा है तथा बाजार में निम्न स्तर के उपलब्ध पठन-पाठन की सामग्री पर इनकी निर्भरता काफी अधिक हो गई है। वैज्ञानिकता के पोषण की आड़ में चिंतन एवं सृजन करने की शक्ति को बहुत हद तक कुंद करने का एक सिलसिला चल पड़ा है जो हमारे समाज के लिए काफी घातक होगा। सूचना का भंडार शैक्षिक संस्थाओं में विभिन्न माध्यमों से सुगमता पूर्वक विद्यार्थियों के सामने परोसा जा रहा है। परंतु इस सूचना को ज्ञान एवं ज्ञान से बुद्धि में परिणत कर जीवन शैली को समुन्नत करने के तरीके से ये रू-ब-रू नहीं हो पा रहे हैं। इसका दुष्परिणाम आज भले ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिख रहा है लेकिन परोक्ष रूप से यह हमारे जीवन के बुनियादी आधारों जैसे अन्तर-मानवीय संबंध, संवेदनात्मक विकास, सामाजिक सरोकार, इत्यिादि को धीरे-धीरे खोखला बना रहा है। मोटे तौर पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण का तात्पर्य उस क्षमता से है जिसके सहारे हम जीवन के विभिन्न पहलुओं का समेकित एवं तार्किक अध्ययन कर उनका उपयोग जीवन स्तर को उन्नत करने के लिए करते हैं।
शैक्षिक वातावरण में वैज्ञानिक युक्तियाँ जटिल से जटिल प्रश्नों का कम से कम समय में शुद्धतम हल प्राप्त करने में काफी सहायक होते हैं। समय की बचत एवं परिणाम की शु़़द्धता इस पर निर्भरता का आधार होता है जिसे हम कम मेहनत में बेहतर प्रतिफल के रूप में देखते हैं। यही दृष्टिकोण जीवन के किसी पहलू में अन्र्तनिहित वैज्ञानिकता का प्रतिमान एवं सार भी है। परन्तु कम समय लगाकर बेहतर परिणाम प्राप्त करने की यही चाहत हमारे अन्दर चिंतन एवं सृजन करने की प्रवृति को नष्ट कर देती है। प्राचीन काल में भारतीय मनीषियों ने गहन चिंतन एवं सृजन की क्षमता से कालजयी रचनाएँ कर मानव जीवन को ऐसी गुणात्मक समृद्धि प्रदान की जिसके सहारे हम भौतिक एवं अध्यात्मिक उंचाईयों को प्राप्त कर सके। आज इस चिंतन एवं सर्जन की परम्परा को कायम रखना एक बड़ी चुनौती प्रतीत हो रही है। अतः आज की शैक्षिक संस्कृति में ऐसे अवयवों को समावेशित करने की आवश्यकता है जो हमारे अन्दर चिंतन एवं सृजन की प्रवृति को पोषित कर सकें। वैज्ञानिक सोच भौतिक विकास एवं समृद्धि के लिए आवश्यक है, पर समुचित व्यक्तिक विकास चिंतन के बिना संभव नहीं है। अतः हमें एक ऐसी शैक्षिक संस्कृति को अंगीकार करने की जरूरत है जो हमारे व्यक्तित्व के सभी पहलुओं के संतुलित विकास को सुनिश्चित कर एक स्वस्थ समाज की रचना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करे।
लेखक :
डाॅ. राज कुमार शर्मा
डीन स्टूडेंट वेलफेयर
राँची विश्वविद्यालय, राँची।
- Sponsored -
- Sponsored -
Comments are closed.