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*फादर कामिल बुल्के* हिंदी साहित्य के दिव्य पुरुष

'परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई' जैसी पंक्ति को अपने जीवन का आधार बनाने वाले फादर कामिल बुल्के! फादर कामिल बुल्के की जयंती पर विशेष ।

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रविकान्त मिश्रा,
लेखक वर्ष 2014 से फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान के सदस्य हैं
तथा एस.के. बागे इंटर महाविद्यालय, कोलेबिरा में हिन्दी विषय के व्याख्याता के पद पर पदस्थापित है।

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झारखंड की राजधानी रांची शहर के ठीक मध्य में अल्बर्ट एक्का चौक से दो सौ कदम की दूरी पर सर्जना चौक है ,जहां से रांची के विभिन्न गलियारों के लिए कई रास्ते निकलते हैं उसी रास्ते के बीच से पुरुलिया रोड जो ठीक सर्जना चौक से होते हुए गुजरती जहां से कभी पुरुलिया के लिए बसें खुलती थीं। इसी रास्ते पर बिल्कुल घनी आबादी के मध्य शहर के चका चौंध भरे होते हुए भी बिल्कुल अलग शांति तथा मनोरम माहौल से अच्छादित मनरेसा हाउस है। तीन कमरों में फादर कामिल बुल्के की दुनिया आबाद थी। जो कभी छप्पर के थे बाद में पक्के का बनाया गया। ठीक इसी राह पर प्राचीन श्रीराम का मंदिर है और जहां से पचास कदम की दूरी पर रामकथा के अनन्य भक्त फादर डॉ कामिल बुल्के रहा करते थे। बीच में जेवियर्स कालेज जहां पर वे कभी हिंदी-संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे। ज्ञात नहीं, रामकथा पर लिखते हुए वे इस प्राचीन श्रीराम मंदिर में कभी गए थे या नहीं, लेकिन सर्जना चौक से जो भगवान राम की अनन्य भक्ति की राह फूटी वह सिर्फ पुरुलिया तक नहीं बल्कि, देश-देशांतर तक इसकी अनुगुंज आज भी सुनाई दे रही है। अब यह रास्ता फादर डॉ कामिल बुल्के पथ के नाम से जानी जाती है।

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मनरेसा हाउस में प्रवेश करते ही अब सबसे पहले फादर की मनोरम सफेद आदमकद संगमरमर की मूर्ति जिनके मस्तक से आज भी तेज का प्रवाह प्रकट होता प्रतीत होता है । थोड़ा आगे बढ़ें तो उनके नाम का पुस्तकालय, शोध संस्थान जिसमें उनकी किताबें, पत्रिकाएं, शोध ग्रंथ आदि हैं, जिनका लाभ छात्र, अध्यापक और शोधार्थी उठाते हैं। जो हिंदी की असाधारण पुस्तकें रांची विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में नहीं, वह यहां मिल जाती है। यह पुस्तकालय आज भी खुद में इतना संपन्न है कि दूर-दूर से हिंदी साहित्य के प्रेमी शोधार्थी हिंदी के मूर्धन्य विद्वान फादर कामिल बुल्के के इस पुस्तकालय की ओर खिंचे चले आते हैं । फादर डॉ कामिल बुल्के का पुस्तकालय इतना संपन्न कैसे हुआ, इसका खुलासा वरिष्ठ साहित्यकार, तथा वर्तमान में फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान के निदेशक फादर डॉ इम्मानुएल बाखला बताते हैं कि संस्कृत तथा हिंदी का प्रेम उन्हें कब भा गया कि वह.संत जेवियर्स कालेज में पढ़ाने का काम छोड़ पढऩे-लिखने में अपना समय लगा दिए। विद्यार्थी-शोधार्थी उनसे मिलने आते। कहते, फादर यह किताब नहीं मिल रही है? फादर, उस किताब को नोट करते, फिर मंगवाते और दे देते। देने के बाद उसे नोट कर लेते। इसका कोई हिसाब नहीं रखते। काम होने पर कुछ वापस कर देते, कुछ नहीं। इस तरह फादर के निजी पुस्तकालय में पुस्तकें बढ़ती गईं। संस्कृत और हिंदी के ग्रंथों का तो पूछना ही नहीं। कहते हैं, वह हर आने वाले की सहायता करते। वही विभिन्न हिंदी के सुधी पाठकों के लिए वह एक खुद में चलता फिरता शब्दकोश के रूप में कार्य करने लगे। लेकिन समय के बदलते पड़ाव के साथ शरीर भी थोड़ा कमजोर पड़ने लगा था, बाद में फादर को सुनने में दिक्कत होने लगी थी। इसलिए वह एडी लगाते थे। कभी-कभी कोई बकवास करता तो एडी बंद कर देते। कहते, भगवान ने मुझे बहरा बनाकर बड़ी कृपा की है। बेकार की बातों को सुनने से बच जाता हूं। फादर को एक और दिक्कत थी। वह दमे के मरीज थे। इसलिए वे इनहेलर का इस्तेमाल करते। मशहूर कथाकार राधाकृष्ण भी दमे के मरीज थे। फादर बाहर से कई इनहेलर मंगाते। विदेश से आने वाले भी ले आते और उसमें से वे एक राधाकृष्ण को भी दे देते। दरअसल, दोनों रांची की पहचान थे। बाहर से कोई साहित्यकार आता तो बस ये दो नाम ही याद आते। बिना मिले कोई जाता नहीं।

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हिंदी के प्रति लगाव, समर्पण और श्रद्धा के बारे में तो कहना ही नहीं। एक बार एक युवक अपने चाचा के साथ उनसे मिलने आया। सुबह का वक्त। दोनों ने कहा, गुड मार्निंग फादर। कुछ देर तक देखते रहे। युवक ने अपने चाचा की ओर इशारा करते हुए कहा, मेरे अंकल हैं। फादर की भवें खींच गईं-अंकल मतलब? पूछा : अंकल मतलब क्या होता है? अंकल मतलब अंकल? चाचा, ताऊ, मामा…क्या? अंगरेजी में तो इनके लिए बस एक ही शब्द है। पर हिंदी में अनगिनत और इससे रिश्ते भी पहचाने जा सकते हैं। जब हिंदी इतनी समृद्ध-संपन्न है तो फिर अंगरेजी बोलते शर्म नहीं आती? यह फादर की घुड़की होती।

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फादर के पुस्तकालय को व्यवस्थित करने वाले और अब संस्थान के निदेशक डा. फादर इम्मानुएल बखला कहते हैं कि जब फादर का निधन हुआ तो यहां किताबों के ढेर लगे थे। जगह-जगह उनको तरतीब करने में छह महीने लग गए। पहले तो यह हुआ इतनी किताबों का क्या जाए? यहां के किसी पुस्तकालय ने लेने से इनकार कर दिया तो फिर तय हुआ कि जिन कमरों में वह रहते थे, उन्हें ही शोध संस्थान का रूप दे दिया जाए। इस काम में आस्ट्रेलिया के फादर विलियम ड्वायर, जिन्होंने हिंदी में भी पीएच डी की थी, बहुत मदद की। फादर अगस्त, 1982 में चल बसे और 1983 में यह शोध संस्थान अस्तित्व में आया। बखला कहते हैं, जब संत जेवियर्स कालेज से 1967-70 के दौरान बीए कर रहा था, तब फादर यहां विभागाध्यक्ष थे, लेकिन वह पढ़ाते नहीं थे। वह अपने घर पर ही रहकर अनुवाद-कोश आदि का काम रहे थे। बाइबिल का अनुवाद और कोश का काम कर रहे थे। कोश के निर्माण में ऐसे लगे थे कि एक शब्द पर कभी-कभी दिन भर लगा देते। दर्जी के बारे में जानकारी लेनी है तो वह उनके घर चले जाते और तत्संबंधी शब्दों की जानकारी लेते। उसके सही उच्चारण और शब्द की तलाश करते। फादर बखला उनके समय की पाबंदी पर भी जोर देते हैं। कहते हैं, उनका समय निर्धारित था। कितने बजे सुबह का नाश्ता, कितने बजे दोपहर का भोजन करना है और संध्या का नाश्ता सब तय। समय की पाबंदी के साथ वे घनघोर आस्थावान भी थे। फादर लोगों को दिन में छह बार प्रार्थनाएं करनी होती। यह काम भी वे नियमित करते। एक उनकी हॉवी थी क्रास वल्र्ड पजल्ड सुलझाने की। चाय पीने के समय वह यह काम किया करते। खुद को ताजा और दिमाग को फ्रेश रखने के लिए वह यह नियमित करते।

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उनके परम मित्र रांची के पुरुलिया रोड स्थित ही डा. दिनेश्वर प्रसाद अब नहीं हैं। प्रसाद भी उनके अनन्य सहयोगी रहे। साहित्यकार संजय कृष्ण के अनुसार उनके निधन के बाद फादर की कई अधूरे कामों को पूरा किया। कोश में कई शब्द जोड़े। उनके लेखों को प्रकाशित कराया। एक किताब अंगरेजी में संपादित की। उनके पास मेरी बैठकी अक्सर होती। यादों का अनमोल पिटारा था उनके पास। एक बार फादर के बारे में दिनेश्वर बाबू बताने लगे…दोपहर के कुछ देर बाद दो-ढाई बजे के आस-पास उनके परिचित-अपरिचित उनसे मिलने आते थे और फादर बड़ी-बड़ी प्लेटों में मक्खन और पाव रोटी फिर काफी के प्याले उनके जलपान के लिए लाते थे। फादर अक्सर काफी खुद बनाते थे। काफी की मात्रा एक व्यक्ति की काफी पूरे बॉल में उसे दी जाती थी और वह बहुत रुचिपूर्वक उनके साथ बातचीत करते हुए उसका आनंद उठाता था। फादर से बातचीत करने के अनेक विषय होते थे। समान्यत: पारिवारिक, वैदुषिक और सामाजिक। लेकिन किसी-किसी दिन जब अतिथि शीघ्र चले जाते और सांझ होने लगती तो फादर संस्मरणशील हो जाते। उन्हें अपना अतीत याद होने लगता और वे कभी बचपन के दिनों की घटनाएं, माता की परोपकारिता, पिता का चारित्रिक दृढ़ता, मित्र बंधुओं के साथ उल्लासपूर्ण बातचीत आदि के प्रसंग सुनाते। जहां एक-दो अवसर ऐसे भी आए जब वह मां के स्नेह के प्रसंग सुनाते-सुनाते रोने लगते थे।

 

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फादर की एक आदत थी कि वे संझा साइकिल से निकल पड़ते। शुक्रवार को उन्होंने अपने लिए अवकाश घोषित कर रखा था। पर, साइकिल की सवारी वह नियमित करते। कभी दोस्तों के यहां तो कभी सुदूर जंगलों में निकल पड़ते। तीस-चालीस किमी की यात्रा कर अंधेरा होते-होते मनरेसा हाउस लौट जाते।
फादर ने लुवेन विश्वविद्यालय से 1930 ई में अभियांत्रिकी स्नातक विज्ञान की उपाधि प्राप्त की थी। संयोग ऐसा कि वे भारत चले गए और फिर भारत को वे अपना दूसरा घर कहने लगे। उन्होंने मुक्तकंठ स्वीकार किया कि ऋषि-मुनियों संतों की पावन भूमि भारत में खींच लाने का संपूर्ण श्रेय गोस्वामी तुलसीदास जी को है।

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रामचरितमानस के रचयिता का गुणगान वे आजीवन करते रहे। उन्होंने कभी कहा था कि मरणोपरांत यदि कहीं यह अवसर आए कि मिलना राम अथवा तुलसी से तो मैं राम से नहीं तुलसी से मिलना चाहूंगा। उनके हृदय में बाबा तुलसी ने जगह बना ली थी। जीवन की संध्या में तुलसी संबंधी चिंतन को पूरे विस्तार से शब्दबद्ध करना चाहते थे, लेकिन काल को कुछ और ही मंजूर था। जिसने हिंदी साहित्य के साथ-साथ संस्कृत साहित्य के भी लेखन कार्य को ग्रहण लगा दिया, फादर डॉ कामिल बुल्के को गैंग्रीन हो गया था। उनका इलाज पहले रांची के मांडर, फिर पटना किया गया, परंतु हालत में कोई सुधार नहीं देख पटना से फिर दिल्ली ले जाया गया, लेकिन वहां भी कोई सुधार नहीं हुआ और 17 अगस्त, 1982 को एम्स में अंतिम सांसें ली। दिल्ली में ही उन्हें दफना दिया। उनके अधूरे कामों को डा. दिनेश्वर प्रसाद ने कुछ पूरा किया। अब दिनेश्वर बाबू भी चले गए। मनरेसा हाउस में शोध संस्थान के जरिए फादर कामिल बुल्के जीवित हैं, जिनकी पुस्तक आज भी बेहद संग्रहणीय रूप से संत जेवियर कॉलेज कैंपस के पिछले हिस्से में फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान का नये रूप की स्थापना की गई है।

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लेकिन फादर बुल्के की कर्मभूमि का क्या कहना पुस्तक भले आज बेहद व्यवस्थित तथा अत्याधुनिक तरीके से संत जेवियर कॉलेज कैंपस में हो लेकिन आज भी फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान का हृदय मनरेसा हाउस स्थित फादर के पुराने तीन कोठली वाले उस पुराने घर में ही धड़कता सुनाई देता है, जहां उन्होंने अपनी रचना ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’, ‘अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश’, ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’, ‘हिन्दी-अंग्रेज़ी लघुकोश’, ‘बाइबिल’ (हिन्दी अनुवाद) आदि को पूरे देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अलग पहचान दिला रही है। हां, उनकी कुर्सी निस्पंद पड़ी है। शायद, अपनी साइकिल से कहीं निकले हों… आज भी उनके पद्म भूषण पुरस्कार और उनकी मूर्ति वहां के शोधार्थी तथा पाठकों में एक अलग सा उत्साह का संचार कर रही है।

 

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रविकान्त मिश्रा,
लेखक वर्ष 2014 से फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान के सदस्य हैं
तथा एस.के. बागे इंटर महाविद्यालय, कोलेबिरा में हिन्दी विषय के व्याख्याता के पद पर पदस्थापित है।

आलेख में लेखक के अपने विचार के साथ फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान के निदेशक डॉ इमानुएल बाखला से बातचीत का अंश तथा फादर कामिल बुल्के द्वारा रचित रामकथा : उत्पत्ति और विकास का अंश तथा साहित्यकार संजय कृष्ण द्वारा लिखित आलेख का भी सहयोग लिया गया है। यह आलेख फादर कामिल बुल्के के जंयती पर उनसे जुड़े सुधी पाठकों तक उनके बारे में जुड़ी कुछ सूचना प्रदान करना है।

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