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4-5 दिसंबर को संभावित वर्षा का लाभ उठाएं किसान: डॉ सुषमा सरोज
कयूम खान
लोहरदगा: जो किसान इस समय गेहूँ की खेती करना चाहते हैं, वे गेहूँ की अनुशंसित पिछात किस्म के ही बीज बोएं। किसान उक्त बातें कृषि विज्ञान केन्द्र लोहरदगा के प्रधान वैज्ञानिक डॉ हेमंत कुमार पांडेय ने कृषकों से का आह्वान करते हुए कही। उन्होंने कहा कि गेहूं के अनुशंसित पिछात किस्म यथा (एचआई 1544, एचआई 1563, डीबीडब्लू 107, एचडी 3118 आदि) का ही चयन करें। उन्होंने कहा कि देर से बोआई करते समय बीज दर सामान्य से कुछ अधिक (50 किलोग्राम प्रति एकड़) का व्यवहार करें तथा बीज को फफूंदीनाशी दवा से उपचारित कर 18 सेंटीमीटर (कतार से कतार ) तथा 7 सेंटीमीटर (पौधा से पौधा) की दूरी पर बोएं। वैसा खेत जहाँ धान फसल काटने के बाद भी नमी बनी रहती है, वहाँ पर गेहूँ की सतही बोआई करें। धान काटने के बाद खेत को ढाल के अनुसार अलग-अलग भूखण्ड में बाँटकर जल निकास या सिंचाई के लिए नालियाँ बना दें। बीज दर 60 किलोग्राम प्रति एकड़ रखें तथा बीजो को बोने से पहले गोबर के घोल से इस तरह उपचारित करें कि बीज पर एक परत बन जाए तथा दाने भी अलग-अलग रहे बीज की बोआई छिटकाव विधि से करें बीज का छिटकाव इस तरह करें कि बीज गीली मिट्टी में चिपक जाए। बोआई के 15 दिनों बाद अनुशंसित उर्वरक की मात्रा यूरिया 85 किलोग्राम, डीएपी 50 किलोग्राम तथा म्युरीएट ऑफ पोटाश 25 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से डालें। डीएपी तथा म्युरीएट ऑफ पोटाश की पूरी मात्रा को एक साथ डालें तथा यूरिया को दो भागों में बाँटकर बोआई के 30 एवं 60 दिनों बाद खड़ी फसल में भुरकाव करें। चना के फसल में बोआई के 30 से 40 दिनों बाद तथा फूल आने से पहले खोटाई (निपिंग) करें। तथा अधिक शाखायें निकलती है, जो ज्यादा से ज्यादा फूल एवं फली धारण करती है और फसल के उपज में भी बढ़ोत्तरी होती है। साथ ही साथ खोटे गये पत्तियों को साग के रूप में बेचकर अतिरिक्त आय भी प्राप्त किया जा सकता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि चने की खोटाई उसी खेतों में करें जहाँ मिट्टी में समुचित नमी हो तथा पौधे की बढ़वार भी ज्यादा हो। उन्होंने कहा कि पशुओं को ठंढ से बचाने हेतु आवश्यक कदम उठाएँ तथा उनके भोजन में खनिज मिश्रण अवश्य मिलाएँ। साथ ही साथ एफएमडी (खूर एवं मुँह पका रोग) से बचाव हेतु टीका लगवाएं।ठंढ के मौसम में गाय बैल में एफ एमडी (चपका रोग) का प्रकोप बहुत अधिक होता है। पशुओं में तेज बुखार (105-106° फारेनहाइट) होना, मुँह से लार आना, थोड़ी-थोड़ी देर बाद मुँह का खोलना एवं बंद करना, पैरों में जख्म (घाव) होना आदि। इस बीमारी से ग्रसित पशुओं को चलने फिरने तथा खाने में परेशानी हो जाती है तथा यदि सही समय पर इस रोग का इलाज नहीं किया जाए तो संकर नस्ल के गायों की मृत्यु भी हो सकती है।उन्होंने कहा कि रोग ग्रसित पशु के मुंह और जीभ को खाने वाला सोडा को पानी में घोलकर दिन में दो बार छींटा मारकर धोएँ। पशुओं के जीभ पर बोरो ग्लिसरीन का लेप लगाएं। 1 किलोग्राम बैगन को पीसकर 100 ग्राम घी मिलाकर पेस्ट बनाएँ तथा इस पेस्ट को प्रतिदिन 2 बार जीभ में लगाएँ। पैर के जख्म को नीम पत्ती डुबा गरम पानी से धोएँ तथा उसके ऊपर सतालु (आडु) के पत्तियों का पेस्ट बनाकर रोग ग्रसित पशु के जीभ को हाथ से नहीं पकड़ें। रोग ग्रसित पशुओं को पानी या कीचड़ में नहीं जाने दें। साल में दो बार पशुओं को इस रोग से बचाव हेतु टीका लगवाएं।
4-5 दिसंबर को संभावित वर्षा
कृषि विज्ञान केन्द्र लोहरदगा के शस्य वैज्ञानिक सह मौसम इंचार्ज डॉ सुषमा सरोज सुरिन कहा कि 20-25 दिन पहले बोयी गयी फसल में 4-5 दिसंबर को संभावित वर्षा का लाभ लेते हुए खर-पतवार नियंत्रित कर यूरिया का भरकाव (20-22 किलोग्राम प्रति एकड़) करें। उन्होंने कहा कि अपने पालतू जानवरों हेतु हरा चारा के लिए जई, लूसर्न आदि की बोआई करें। संभावित वर्षा का लाभ लेते हुए 25 से 30 दिन पहले बोयी गयी फसल में मिट्टी चढ़ाकर यूरिया का भुरकाव करें।फसल में अगर अंगमारी रोग का लक्षण (शुरुआत में निचली पत्तियों पर छोटे, फीके-भूरे चमकदार धब्बा बनता है, जो धीरे-धीरे ऊपर की पत्तियों पर फैलने लगता है और अंत में पत्तियाँ सिकुड़कर गिर जाती है) दिखाई पड़े तो अविलंब फफूंदीनशी दवा रीडोमील का छिड़काव 1.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से करें। जो किसान अगात आलू की फसल लगाए हैं, वे अपने फसल के परिपक्कता को देखते हुए खुदाई से 7-10 पहले ऊपर का पत्ता काटकर हटा दें ताकि आलू सख्त एवं उसका छिलका परिपक्क हो जाए। आलू की फसल के बाद खाली हुए खेतों में प्याज की खेती करें।
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