- Sponsored -
डॉ. दीपक पाचपोर
ऐसे वक्त में जब देश एक-एक सांस के लिये जंग लड़ रहा है तब सरकार हमारे संसाधन दूसरे देशों को क्यों दे रही है, क्यों निरर्थक पैसे फूंके जा रहे हैं और जब सामान्य लोगों की रक्षा की जानी चाहिये तब कुछ फालतू लोगों की सुरक्षा में क्यों पैसे बर्बाद हो रहे हैं? स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़कें, बिजली, पानी मांगने की बजाय हम अपने विरोधी विचार वाली सरकार के प्रदेश में राष्ट्रपति शासन और देश में आपातकाल लगाने की मांग करते हैं। दूसरों पर शासन करने की इच्छा या प्रवृत्ति मानव की आदिम आकांक्षाओं में से एक है। पशुओं की तरह रहते हुए भी एक या कुछ लोगों द्वारा शेष समाज को अपने नियंत्रण में लेने के प्रयास होते रहे होंगे। खुद पर एक या कुछ लोगों की सत्ता को स्वीकार कर लेना भी आदिम युग से लेकर कमोबेश आज तक अधिसंख्य के लिये जरूरी ही रहा होगा। एक या गिनती के लोगों द्वारा समाज के संसाधनों व परिसंपत्तियों पर कब्जा करने की कामना धीरे-धीरे रूप बदलती हुई विभिन्न शासन प्रणालियां बनती चली गईं। इसलिये ‘राजनीति’ शब्द की अवधारणा अधिकतर लोगों के लिये सत्ता ही है; और वे अक्सर भूल जाते हैं कि राजनीति में ‘नागरिक’ तत्व भी शामिल है। प्राचीन अवधारणाओं में राजनीति का अवलोकन ज्यादातर सत्ताधीशों की दृष्टि से ही होता आया है। समाज में प्रजा की मौजूदगी को ज्यादातर लोग न केवल भूलते या नजरंदाज करते हैं वरन विस्मृत भी कर देते हैं। इसीलिये अधिकतर लोग जब ‘राजनीति’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो उनका आशय किसी शासन प्रणाली से ही होता है। भारत के परिप्रेक्ष्य में यह बात कहीं अधिक प्रासंगिक है। इसी दृष्टिकोण का यह नतीजा है कि हम खुद कमजोर होते हुए सत्ताओं को मजबूत करते जाते हैं। यूरोप में भी ऐसा हुआ है पर वहां राजशाही के बीच भी नागरिक बोध या जनचेतना की धाराएं काफी पहले से बहती आई हैं। प्रारम्भ में वहां चाहे राजशाही मजबूत एवं नागरिक तत्व कमजोर रहा हो पर आज यूरोप के अनेक देशों में राजवंश तो हैं लेकिन वे संवैधानिक रूप से कमजोर, प्रतीकात्मक और प्रदर्शन की वस्तु मात्र हैं। नागरिकों को अधिकार, सुरक्षा और भविष्य वहां की निर्वाचित संस्थाएं देती हैं न कि राजवंश। इधर भारत में आदिकाल से राजशाही और सामंतशाही रही है। हमारी जातीय स्मृतियों में वह इतनी गहरी खुबी हुई हैं कि हम लोकतंत्र को आज तक ठीक से आत्मसात नहीं कर पाये हैं। रियासतें चाहे खत्म हो गई हों लेकिन हमारे शासक राजतंत्र के अनुरूप हमसे व्यवहार करते हैं। हम पर लोकतांत्रिक तरीकों से निर्वाचित होकर भी अगर सत्ताएं राजशाही सा व्यवहार करती हैं तो इसका कारण यह है कि हमारा अपना व्यवहार भी इसी के अनुकूल रहा है। हम (जनता) स्वयं सही मायनों में लोकतांत्रिक नहीं हुए हैं।’राजा कभी गलती नहीं कर सकता’ या ‘राजा ईश्वर का अवतार है’ जैसी मध्ययुगीन अवधारणाएं आज भी विद्यमान होने के कारण हमारी अधिकतर प्रजा शासन की आलोचना से परहेज करती हैं। जो चतुर होते हैं वे अपनी जरूरतों के अनुसार आलोचना या प्रशंसा अथवा विरोध या समर्थन के लिये व्यक्ति-संगठन चुन लेते हैं। एक परिपक्व अथवा अपरिपक्व लोकतंत्र की पहचान इसी से होती है। जिन देशों में वहां की सरकारें स्वयं को जनता की आलोचना या विरोध के लिये सहर्ष प्रस्तुत करती हैं वे ही असली जनतांत्रिक प्रणालियां कही जा सकती हैं। एक सच्चा लोकतंत्र जनता रूपी तत्व और उसकी आवाज की कभी अवहेलना नहीं करता। इस संदर्भ में अगर हम भारतीय मानसिकता की पड़ताल करें तो हम सत्ता की आलोचना या उसकी गलतियां बतलाना सामान्यत: हजम ही नहीं कर पाते। एक राजनैतिक पाप की आशंका हमें घेर लेती है और राजनैतिक दल लोगों की इसी मान्यता को समर्थन और विरोध की संकीर्ण सीमाओं में बांधते हैं। मसलन, अगर अ पार्टी की सरकार है तो उसके समर्थकों के लिये उसके सौ खून माफ होंगे जबकि ब दल के लिये उसकी सत्ता आलोचना से परे हो जाती है। सारी सत्ताएं इसी मान्यता को अप्रत्यक्ष रूप से प्रमोट करती हैं ताकि वह शासक बनी रहे। अब अगर राजनीति को केवल शासकों की दृष्टि से न देखकर जनता की नजरों से देखा जाये तो हम कह सकते हैं कि शासक वर्ग या सत्ता तो हमेशा से ही ताकत बटोरने की लालची, क्रूर, अन्यायपूर्ण और जनविरोधी रही है- कुछ संक्षिप्त शासनकालों या कथित स्वर्णकालों या परिकथाओं को छोड़कर जिनके पुख्ता सबूत हमारे पास नहीं हैं। जब लोग कहते हैं कि राजनीति बदल गई है, तो वे गलतफहमी में हैं क्योंकि राजनीति का मूल चरित्र हमेशा एक सा रहता है। दूसरी तरफ, हम जिसे लोकतांत्रिक प्रजा कहते हैं वह एक गैर लोकतांत्रिक सत्ता के साथ और स्वयं अपने ही खिलाफ खड़ी दिख रही है जो यह भी बतलाता है कि सच्चे मायनों में एक आजाद खयाल जनता बनने में हमें वक्त लगेगा। यह लेख राजनीतिक सिद्धांतों की मीमांसा करने के लिये नहीं बल्कि हम आम भारतीयों के नागरिक बोध और राजनैतिक चेतना की समीक्षा करने की दृष्टि से लिखा गया है। कोविड-19 के संकट के संदर्भ में अगर सरकारों की भूमिका और जनता की स्थिति का परीक्षण करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता तो वही सब कुछ कर रही है जैसी अलोकतांत्रिक समाज में वह अक्सर करती आई है- स्वयं को मजबूत करना और नागरिक को कमजोर करना। करोड़ों लोगों के बेरोजगार-गरीब होने, असंख्य नागरिकों के मरने, अस्पतालों और श्मशानों के पट जाने पर भी अधिकतर शासकों के व्यवहार में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता। अलोकतांत्रिक देशों में अपवादों और गिनती के उदाहरणों को छोड़कर ज्यादातर शासक संवेदनाशून्य और अमानवीय होते हैं। त्रासदियों में भी उनका लक्ष्य विरोध को कुचलकर ताकत बटोरना होता है। यह तो जनता पर निर्भर करता है कि वह जीने का अधिकार मांगे और उन्हें कमजोर करने के सत्ता के मंसूबों को नाकाम करे। ऐसे वक्त में जब लाखों लोग भूख और बीमारियों से मर रहे होते हैं वैसे में राजनीति के शीर्ष पर बैठे लोग अगर चुनाव-चुनाव खेलते हैं, एकत्र करोड़ों रुपये डकार लिये बिना खा जाते हैं, मेले-ठेले आयोजित करते हैं, अपने लिये सुविधाओं का अंबार जुटाते हैं, मित्रों को बेहिसाब फायदा पहुंचाते हैं, तो जनता को तय करना होता है कि वह क्या करे। यही उसके विवेक और नागरिक बोध की परीक्षा होती है। ऐसा वर्ग जो अपने नागरिक बोध को राजनैतिक दलों की सदस्यता की रसीद में लपेटकर अलमारी में रख चुका है वह एक कदम आगे बढ़कर न केवल सत्ता के अन्यायपूर्ण कदमों का समर्थन करते हैं बल्कि सरकार के वेतनभोगी कर्मचारी की तरह उसके अपराधों को सही और तार्किक साबित करने का काम करता है। यही वह वर्ग होता है जो प्रतिपक्ष का उपहास एवं उसको अनसुना कर सत्ता का साथ देता है। ऐसी सत्ता का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता जिसके पास उसका जयकारा लगाने और विपक्ष, मीडिया, सामाजिक कार्यकतार्ओं और बुद्धिजीवियों पर ‘हां हां’ करने वाला वर्ग मौजूद हो। यही वर्ग सरकार की असली शक्ति होता है जो सरकार की ओर से सत्ता के आलोचकों पर हमले करता है।वह हर घटना का आकलन इस आधार पर करता है कि उसका संबंध किस पार्टी व प्रदेश से है और वहां उसकी समर्थक पार्टी की सरकार है या विपक्ष की। प्रतिपक्ष, मीडिया, बुद्धिजीवी, विशेषज्ञ, न्यायपालिका जब सरकार के खिलाफ कुछ कहती है तो यह वर्ग सरकार का भांड-चारण बनकर रक्षा करता है। यह सच से आंखें मूंदकर एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में रहता है जिसका निर्माण उसके चहेते शासकों के अलावा कोई नहीं कर सकता। कतारों में खड़े लोगों की मौतें, सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते लोग, गरीबी-भुखमरी से लड़ती जनता को सकारात्मक बातें करने की कला यही वर्ग सिखाता है। मजबूर लोगों की पंक्तियों की तुलना वह शराब दुकानों की कतारों से सहज भाव से करता है।पूरे देश को त्रासदी में ढकेलने वाले किसी भी तरह के राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक कार्यक्रमों से उसे कतई परहेज नहीं होता- उसकी दिलचस्पी और चिंता के केन्द्र में बस सत्ता को शक्तिशाली करना होता है। वह यह नहीं पूछता कि ऐसे वक्त में जब देश एक-एक सांस के लिये जंग लड़ रहा है तब सरकार हमारे संसाधन दूसरे देशों को क्यों दे रही है, क्यों निरर्थक पैसे फूंके जा रहे हैं और जब सामान्य लोगों की रक्षा की जानी चाहिये तब कुछ फालतू लोगों की सुरक्षा में क्यों पैसे बर्बाद हो रहे हैं? स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़कें, बिजली, पानी मांगने की बजाय हम अपने विरोधी विचार वाली सरकार के प्रदेश में राष्ट्रपति शासन और देश में आपातकाल लगाने की मांग करते हैं। देश के सबसे शक्तिशाली राजा का प्रधानमंत्री होकर भी राजधानी की सीमा से बाहर किसी झोपड़े में रहने, तीन कमरे छोड़कर राष्ट्रपति भवन के शेष कमरे बंद कराने या कार्यकाल की समाप्ति पर कुछ जोड़ी कपड़े एवं पुस्तकें लेकर शासकीय आवास छोड़ने जैसे शासकों की सादगी और संयम के वैसे तो हमारे पास अनेक ऐतिहासिक किस्से हैं लेकिन जब करनी का वक्त आता है तो हम एक निकृष्ट शासक साबित होते हैं। हमारे पास न्यायप्रियता के बहुतेरे प्रेरक प्रसंग हैं लेकिन क्रियान्वयन के दौरान हम जनता के प्रति अन्यायकारी व क्रूर ही सिद्ध होते आये हैं। सियासत तो आदिकाल से ऐसी ही रही है, अब की तो असल में हम नागरिकों का ही पदार्फाश हुआ है।
- Sponsored -
Comments are closed.