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राजनीतिक वायरस की वैक्सीन भी जरूरी

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राजकुमार सिंह
हालांकि खुद सरकारी आंकड़े संदेह और सवालों के घेरे में हैं। फिर भी उन पर विश्वास करें, क्योंकि इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है, तो मान लीजिए कि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर उतार पर है। नहीं, इसमें दिग्भ्रमित सरकार की कोई भूमिका नहीं है। सीमित संसाधनों वाले बेदम स्वास्थ्य तंत्र का भी इसमें कोई योगदान नहीं है। फिर भी महाराष्ट्र और दिल्ली में नये कोरोना संक्रमण के आंकड़ों में कमी से दूसरी लहर में उतार का संकेत मिल रहा है तो यह लॉकडाउन का परिणाम है। देश की वाणिज्यिक राजधानी कहे जाने वाले मुंबई सरीखे विशाल महानगर समेत महाराष्ट्र में मार्च-अप्रैल में लगभग बेकाबू नजर आ रहे कोरोना से निपटने को लॉकडाउन का अलोकप्रिय निर्णय लेने का साहस पहली बार मुख्यमंत्री बने उद्धव ठाकरे ने दिखाया तो परिणाम भी सामने है। यह सुखद आश्चर्य है कि हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कोरोना नियंत्रण के सफल प्रयासों के लिए महाराष्ट्र सरकार की प्रशंसा की, वरना तो भाजपाई जोड़तोड़ को नाकाम कर जिन दिन से उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने हैं, भाजपा और उसकी केंद्र सरकार उनकी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष घेराबंदी का कोई मौका नहीं चूकती।कमोबेश यही स्थिति देश की राजधानी दिल्ली की है। दिल्ली अपूर्ण राज्य है, जहां अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की सरकार है। केजरीवाल ने सत्ता तो कांग्रेस से छीनी थी, लेकिन सत्ता पाने के भाजपाई मंसूबे एक नहीं, तीन बार नाकाम किये हैं। दुर्दिनों से गुजर रही कांग्रेस तो खिसियाने के अलावा कुछ कर नहीं सकती, लेकिन भाजपा और उसकी केंद्र सरकार केजरीवाल की घेराबंदी के लिए जैसे हर समय मौके की तलाश में रहती हैं। बेशक इसके लिए अधूरे राज्य के कुछ ज्यादा ही बड़बोले मुख्यमंत्री केजरीवाल खुद भी कम जिम्मेदार नहीं हैं, लेकिन भाजपा का तो केजरीवाल को कोसना ही जैसे एकसूत्री कार्यक्रम रह गया है। माना कि महाराष्ट्र और दिल्ली, दोनों ही जगह भाजपा विपक्ष में है। यह भी कि सरकार के कामकाज की निगरानी और खामियों को उजागर करना सजग-सक्रिय विपक्ष का अधिकार ही नहीं, संवैधानिक-लोकतांत्रिक जिम्मेदारी भी है, पर क्या कोरोना सरीखे अभूतपूर्व आपदाकाल में भी किसी जिम्मेदार राजनीतिक दल को विपक्ष की परंपरागत मानसिकता और छवि में ही कैद रहना चाहिए? निश्चय ही अकेली भाजपा इस विरोधी ग्रंथि की शिकार नहीं है। एक सप्ताह देर से लॉकडाउन लगाने के बाद ही सही, हरियाणा सरकार ने बीपीएल मरीजों के लिए होम आईसोलेशन पर 5 हजार रुपये, निजी अस्पताल में 7 दिन इलाज के लिए 35 हजार रुपये देने, जरूरतमंदों को घर-घर आॅक्सीजन की डिलीवरी और अब गांवों में भी घर-घर कोरोना जांच तथा कोरोना से जंग में सेना एवं उद्योग जगत की मदद लेने जैसी जो पहल की हैं, वे तो अन्य राज्यों के लिए भी अनुकरणीय होनी चाहिए, लेकिन राज्य में विपक्षी दलों को कोरोना नियंत्रण में सरकार की नाकामी के अलावा कुछ नजर ही नहीं आ रहा।पिछले साल कोरोना की आहट के साथ ही 50 दिन लंबा लॉकडाउन लगाकर सभी की आलोचना का पात्र बन चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर अब कोरोना के लगातार बढ़ते मामलों के बावजूद राज्यों को यह नसीहत देते नजर आते हैं कि लॉकडाउन को आखिरी विकल्प ही समझें तो कुछ लोग उनसे सहमत भी हो सकते हैं, लेकिन जब आपके पास बेकाबू कोरोना के नये मरीजों को इलाज दे पाने की न्यूनतम सुविधाएं भी नहीं नजर आ रहीं, गंभीर मरीज अस्पतालों में बेड, आॅक्सीजन और वेंटिलेटर के अभाव में दम तोड़ रहे हैं, तब संक्रमण की इस रफ्तार पर नियंत्रण के लिए लॉकडाउन के अलावा उपाय ही क्या शेष रह जाता है? बेशक हरियाणा और उत्तर प्रदेश में लॉकडाउन का फैसला कुछ देर से लिया गया, लेकिन अब नये कोरोना केस के घटते आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल की तरह इस साल भी लॉकडाउन ही इस वैश्विक महामारी के विरुद्ध जंग में हमारा सबसे कारगर हथियार है। बेशक एक-सवा साल के खौफनाक अनुभव के बाद भी कोरोना से जंग में हमारे संसाधनों-विकल्पों की यह सीमितता हमारी अदूरदर्शिता और गलत प्राथमिकताओं का ही प्रमाण है। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की जनता को यह जानने का अधिकार है कि कोरोना की आहट से लेकर दूसरी लहर की स्पष्ट चेतावनियों के बीच हमारे यहां स्वास्थ्य सेवाओं का क्या और कितना विस्तार हुआ? बढ़ते संकट के बीच भी कोरोना वैक्सीन कूटनीति और आॅक्सीजन निर्यात क्यों जारी रहा? ऐसे सवालों की फेहरिस्त लंबी बन सकती है, जो केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारों से भी पूछे जाने चाहिए, लेकिन क्या यह जरूरी है कि जब कोरोना काल बनकर मानवता पर टूट रहा है, तभी इस पर राजनीति की जाये, दोषारोपण का खेल खेला जाये?दुर्भाग्यवश हो यही रहा है। महाराष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान और पंजाब में भाजपा को कुछ सही होता नहीं दिख रहा तो हरियाणा, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक जैसे राज्यों में कांग्रेस को भी कोरोना से जंग में सिर्फ काहिली ही नजर आ रही है। कोरोना से जंग में चौतरफा नाकामी के बावजूद राजनीतिक दलों का यह रवैया मानवीय संवेदनाओं के बजाय दलगत स्वार्थों से ज्यादा प्रेरित है। कहना नहीं होगा कि इस राजनीतिक वायरस की वैक्सीन भी बहुत जरूरी है। विदेशी ही नहीं, स्वदेशी मीडिया की भी सचित्र रिपोर्टों के बाद यह तो साफ है कि कोरोना काल में सरकारी आंकड़े सच बता कम रहे हैं, छिपा ज्यादा रहे हैं। यह भी कि बार-बार आगाह किये जाने के बावजूद कोरोना को गांवों तक फैलने से नहीं रोका जा सका है। अस्पतालों के बाहर मरीजों की कतारें हैं तो अंतिम संस्कारों के लिए टोकन बंट रहे हैं। अब पिछले कुछ दिनों से तो नदियों में भी लाशें बहती मिल रही हैं। लेकिन हमारी सरकारें अपना समय और ऊर्जा हालात पर नियंत्रण से ज्यादा मृतकों के आंकड़े छिपाने तथा नदियों में बहती लाशों को दूसरे राज्यों की बताने में लगा रही हैं। निश्चय ही सरकारों का यह संवेदनहीन रवैया बदलना चाहिए, लेकिन हम जानते हैं कि सत्ता का चरित्र आसानी से नहीं बदलता। इसलिए राजनीतिक दलों को तो कम से कम इस आपदाकाल में अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझनी-निभानी चाहिए। मीडिया में जो भी दावे किये जायें, पर कोरोना से उत्पन्न गंभीर संकट के बीच पीड़ितों-प्रभावितों को जरूरी मदद में राजनीतिक दलों की भूमिका जमीन पर ज्यादा नजर नहीं आती।कोरोना के विस्तार और गहराते संकट के बीच सरकारी तंत्र की सीमाएं हम सभी देख रहे हैं। इसलिए राजनीतिक दलों को चाहिए कि सोशल मीडिया झ्रमीडिया में एक-दूसरे पर दोषारोपण का अपना प्रिय खेल बाद के लिए छोड़ कर फिलहाल जमीन पर उतरें, जनता के बीच जायें। जाहिर है, पीड़ितों को चिकित्सकीय सुविधा राजनीतिक नेता-कार्यकर्ता नहीं दे सकते, पर जरूरी चीजों में मदद का हाथ अवश्य बढ़ा सकते हैं। सवा साल बाद भी कोरोना से बचाव के प्रति जनता में जरूरी जागरूकता नहीं दिखती तो यह सरकार से ज्यादा समाज की नाकामी है। जीवनरक्षक दवाओं-उपकरणों की कालाबाजारी नैतिक मूल्यों के पतन का प्रमाण है। इस मोर्चे पर राजनीतिक दलों को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए, खासकर इसलिए भी कि इस अवधि में हुए चुनाव आदि में खुद उनके गैर जिम्मेदार आचरण-व्यवहार से बहुत गलत संदेश गया है। आजादी के सात दशक बाद भी संतोषजनक चिकित्सा सुविधाओं से वंचित गांवों में कोरोना का कहर कितना भयावह साबित हो सकता है, वहां से आने वाली खबरें उसका संकेत मात्र हैं। वक्त का तकाजा है कि दलगत राजनीति से उबर कर देश-समाज पर मंडराते संकट से निपटने की समझदारी और एकजुटता दिखायें। पहली बार प्रधानमंत्री बनने पर नरेंद्र मोदी ने सभी राज्यों के साथ मिलकर टीम इंडिया की तरह देश के लिए काम करने की बात कही थी, उस पर अमल का सही समय आ गया है। वह कथनी अब करनी में बदलनी चाहिए।

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